Sunday, November 17, 2024
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पौधों में उत्सर्जन कैसे होता है | पादपों में उत्सर्जन की क्रियाविधि

पौधों में उत्सर्जन कैसे होता है (Padpo me utsarjn kese hota hai) :- इस पोस्ट के माध्यम से आज हम ,पौधों में उत्सर्जन , पौधों में उत्सर्जन कैसे होता है , पादपों में उत्सर्जन का वर्णन,पौधों में उत्सर्जन कैसे होता है ,How would emission plants,बिन्दुस्त्राव, रसस्राव, वाष्पोसर्जन,द्वितीयक उपापचायी आदि के बारे में विस्तार से पढ़ेंगे। आप अच्छे से इनके बारे में अध्ययन करें। ताकि आगे आने वाले विभिन प्रतियोगी परीक्षाओ जैसे राजस्थान रीट (Rajasthan REET),IIT, NIT, AIIMS Exam आदि में आप अच्छे नम्बर प्राप्त कर सको। तो आइये देखते है पौधों में उत्सर्जन के बारे में एक महत्वपूर्ण जानकारी।

पौधों में उत्सर्जन

पादपों में उत्सर्जन के लिए कोई विशेष अंग नहीं होते। उनमें अपशिष्ट पदार्थ रवों के रूप में इकट्ठे हो जाते हैं जो कि पादपों को कोई हानि नहीं पहुँचाते । पौधों के शरीर से छाल अलग होने पर तथा पत्तियों के गिरने से ये पदार्थ निकल जाते हैं। कार्बन डाइऑक्साइड श्वसन क्रिया का उत्सर्जी उत्पाद है जिस का प्रयोग प्रकाश संश्लेषण क्रिया में कर लिया जाता है। अतिरिक्त जलवाष्प वाष्पोत्सर्जन से बाहर निकाल दिया जाता है। ऑक्सीजन रंध्रों से वातावरण में छोड़ दी जाती है। अतिरिक्त लवण जल वाष्पों के माध्यम से उत्सर्जित कर दिए जाते हैं। कुछ उत्सर्जी पदार्थ फलों, फूलों और बीजों के द्वारा उत्सर्जित कर दिए जाते हैं। जलीय पादप उत्सर्जी पदार्थों को सीधा जल में ही उत्सर्जित कर देते हैं।

वाष्पोत्सर्जन/Transpiration

पादपों के वायवीय भागो द्वारा जल , वाष्प के रूप में बाहर निकलता है , इस क्रिया को वाष्पोत्सर्जन कहते है। वाष्पोत्सर्जन मुख्यतः पर्णरन्ध्रो द्वारा होता है ।

पर्णरन्ध्र की संरचना

पत्तियों की निचली सतह पर पर्णरन्ध्र अधिक व ऊपरी सतह पर पर्णरंध्र कम संख्या में पाये जाते है। रंध्रो की संख्या 1000 – 60000 प्रति वर्ग सेमी हो सकती है। प्रत्येक पर्णरंध्र दो सेम के बीजो के आकार की द्वार कोशिकाओं से बना होता है जिनके चारों तरफ सहायक कोशिकाएँ होती है , द्वार कोशिकाओं में हरित लवक पाये जाते है।

वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया

दिन के समय द्वार कोशिकाओ में शर्करा का निर्माण होता है , जिससे द्वार कोशिकाओं में विसरण दाब न्यूनता उत्पन्न हो जाती है , इस कारण द्वार कोशिकाओं की भीतरी सतह में तनाव उत्पन्न होता है |

परिणामस्वरूप पर्णरन्ध्र खुल जाते है , रात्रि के समय द्वार कोशिकाओ में ग्लूकोज का स्तर कम हो जाता है | जिससे द्वार कोशिकाएँ श्लथ हो जाती | परिणामस्वरूप रन्ध्र बंद हो जाते है | पर्णरंध्र खुलने के दौरान ही जल वाष्प बनकर रंध्रो से बाहर निकलता है , जिसे वाष्पोत्सर्जन कहते है |

वाष्पोत्सर्जन को प्रभावित करने वाले कारक

  1. ताप
  2. प्रकाश
  3. आर्द्रता
  4. वायु की गति
  5. रंध्रों की संख्या व वितरण
  6. खुले रंध्रो की प्रतिशतता
  7. पौधे में पानी की उपस्थित

बिंदु स्त्राव/Point Secretion

पत्तियों के उपांत (margin) से जल का छोटी-छोटी बूंदों के रूप में स्त्राव (secretion) बिंदु स्त्राव कहलाता है।

बिंदु स्त्राव का अध्ययन सर्वप्रथम बर्गरस्टीन (bergerstein, 1887) ने किया था। बिंदु स्त्राव सभी पौधों में नहीं पाया जाता है। यह केवल 345 वंशो में पाया गया है। यह सामान्यतः शाकीय पौधों में पाया जाता है, जैसे- गार्डन नैस्टर्शियम (garden nasturtium), आलू, टमाटर, जई, बंदगोभी आदि। जल की यह हानि (स्त्राव) पत्ती की शिराओं के अंत पर स्थित छोटे-छोटे छिद्रों के द्वारा होती है, जिन्हें जलरंध्र (water stomata) कहते हैं।

जलरंध्र के निर्माण में एक छिद्र तथा उसके भीतर की ओर ढीले रूप में व्यवस्थित मृदूतकी कोशिकाएं भाग लेती है जिन्हें ऐपीथेम (epithem) कहते हैं। जलरंध्र सदैव खुले रहते हैं। ऐपीथेम के पीछे जाइलम वाहिकाओं (xylem vessels) तथा वाहिनिकाये खुलती है। इनके द्वारा स्त्रावित जल ऐपीथेम से होकर जलरंध्रों (water stomata) से बूंदों के रूप में बाहर निकलता है।

बिंदु स्त्राव प्रायः उष्ण व आर्द्र (warm and humid) जलवायु के पौधों में होता है। जल सक्रिय जल अवशोषण के लिए उचित परिस्थितियों में पाया जाता है। यह प्रायः रात्रि अथवा प्रातःकाल में पाया जाता है जब जल अवशोषण अधिक परंतु वाष्पोत्सर्जन कम होता है जिसके फलस्वरूप जाइलम वाहिकाओं में मूलदाब (root pressure) बढ़ जाता है, जिसके कारण जल वाहिकाओं से निकलकर जलछिद्रो द्वारा बाहर निकल आता है। इस जल में विलेय पाये जाते हैं इसी कारण जल के सूखने पर पत्ती की सतह पर सफेद धब्बे दिखायी देते हैं।

वाष्पोत्सर्जन एवं बिंदु स्त्राव में अंतर

क्रमांकवाष्पोत्सर्जनबिंदु स्त्राव
1.यह दिन में होता है।यह रात्रि (night) में या सुबह होता है।
2.पानी वाष्प के रूप में बाहर निकलता है।पानी तरल (liquid) के रूप में बाहर निकलता है।
3.जलवाष्प शुद्ध होती है।कई तरह के पदार्थ (substance) बिंदु स्त्राव जल में मिले रहते हैं।
4.यह रंध्रों, वातररंध्रों या उपत्वचा द्वारा होता है।यह जलरंध्र (hydathodes) द्वारा होता है।
5.यह एक नियमित (regulated) क्रिया है।यह एक अनियमित (non-regulated) क्रिया है।

रस स्राव/Bleeding

पौधे के किसी अंग के कट जाने या फट जाने से जल तथा उसमें घुले अनेक पदार्थ (कोशिका-रस) बाहर रिसने लगते हैं। यह क्रिया रसस्त्राव (bleeding) कहलाती है। ताड़ के पेड़ों के तनों से ताड़ी (toddy juice) का निकालना, रबड़ के पौधों से रबड़क्षीर (latex) का निकालना रसस्त्राव के ही उदाहरण है। इस प्रकार रसस्त्राव आर्थिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण क्रिया है।

द्वितीयक उपापचायी पदार्थ

ये दो प्रकार के होते है। ये निम्नलिखित है :-

  • कार्बनिक
  • अकार्बनिक

पादपों में उत्सर्जन की क्रियाविधि

पादपों में अपशिष्ट पदार्थों को एकित्रात करने, संचरित करने तथा निष्कासित करने हेतु जंतु समान क्रियाविधि नहीं पायी जाती है। वे अपशिष्ट पदार्थों के निष्कासन हेतु विभिन्न विधियों का प्रयोग करते हैं।

  •  पर्ण : अपशिष्ट पदार्थ पुराने पर्णों में एकित्रात होते हैं जो शीघ्र ही गिर जाते हैं।
  • जाइलम : रेजिन, गोंद, टेनिन तथा अन्य अपशिष्ट पदार्थ जाइलम मे एकित्रात हो जाते हैं, जो कि शीघ्र ही निष्क्रिय हो जाते हैं।
  • काष्ठ : काष्ठ में मृत कोशिकाऐं पायी जाती हैं, जो कि समय समय पर गिरती रहती हैं। टेनिन तथा अन्य पदार्थ काष्ठ में एकित्रात हो जाते हैं। टेनिन का उपयोग स्याही तथा रंगों के निर्माण में कच्चे माल के रूप में होता है।
  • केन्द्रीय रिक्तिका : अधिकतर पादपों में अपशिष्ट पदार्थ कोशिका में उपस्थित केन्द्रीय रिक्तिका संचित होते हैं। ये रिक्तिकाएँ चयनात्मक पारगमय झिल्ली, टोनोप्लास्ट के कारण जीवद्रव्य के कार्यों पर प्रभाव नहीं डालती हैं।
  • मूलों द्वारा उत्सर्जन : कुछ पादप अपशिष्ट पदार्थों का उत्सर्जन मूलों द्वारा होता है।
  • अनाविषीकरण : विषैला ऑक्जेलिक अम्ल कैल्शियम ऑक्जेलेट के निर्माण द्वारा अविषीकृत होता है। जो सुर्इ (रेफिड्स), प्रिज्म (पिसमेटिक क्रिस्टल), स्टार (स्फीरेफिड्स) तथा क्रिस्टल सेन्ड में क्रिस्टलीकृत होते है। कैल्शियम का आधिक्य भी कैल्शियम कार्बोनेट के रूप में अवक्षेपित होता है। उदा – सिस्टोलिथ।
  • लवण ग्रंथियाँ : ये ग्रथियाँ वातावरण से प्राप्त अतिरिक्त लवण का उत्सर्जन करती हैं।
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